ग्रेटर नोएडा के दादरी स्थित बिसाहड़ा गांव में वर्ष 2015 में हुए अखलाक मॉब लिंचिंग केस को लेकर उत्तर प्रदेश सरकार ने मुकदमा वापस लेने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। इसके लिए सरकार की ओर से ग्रेटर नोएडा की जिला अदालत में प्रार्थना पत्र दायर किया गया है, जिसकी सुनवाई 12 दिसंबर को तय की गई है। फास्ट ट्रैक कोर्ट-1 में एडिशनल सेशंस जज के समक्ष दाखिल अर्जी में शासन और संयुक्त निदेशक अभियोजन के निर्देश पर सहायक जिला शासकीय अधिवक्ता ने इस केस को सामाजिक सौहार्द के आधार पर समाप्त करने की मांग की है। हालांकि अखलाक के परिवार की ओर से यह उम्मीद जताई जा रही है कि मामला वापस नहीं होगा और मुकदमे की सुनवाई जारी रहेगी।
यह मामला 28 सितंबर 2015 की उस रात से जुड़ा है जब बिसाहड़ा गांव में गोमांस खाने की अफवाह फैलते ही भीड़ ने अखलाक के घर पर हमला कर दिया था। हमला इतना उग्र था कि अखलाक की मौके पर ही मौत हो गई और उसका बेटा दानिश गंभीर रूप से घायल हो गया। इस घटना ने पूरे देश में सांप्रदायिक तनाव पैदा कर दिया था और बिसाहड़ा गांव राष्ट्रीय सुर्खियों में छा गया था। घटना के बाद अखलाक की पत्नी इकरामन ने 10 लोगों के नामजद करते हुए एफआईआर दर्ज कराई थी, जिसमें आरोप लगाया गया था कि आरोपी लाठी-डंडों और तमंचों से सुसज्जित होकर घर के भीतर घुस आए और हमला किया। पुलिस ने अपनी जांच के बाद भारतीय दंड संहिता की कई गंभीर धाराओं सहित क्रिमिनल लॉ एक्ट की धारा 7 के तहत मामला दर्ज किया था।
जांच के दौरान पुलिस ने प्रत्यक्षदर्शी गवाहों—अखलाक की पत्नी इकरामन, मां असगरी, बेटी शाहिस्ता और बेटे दानिश—के बयान दर्ज किए। शुरुआत में 10 नाम सामने आए थे, लेकिन आगे चलकर गवाहों ने 16 से 19 लोगों के नाम शामिल किए। 22 दिसंबर 2015 को पुलिस ने 18 आरोपियों के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किया। सभी आरोपी फिलहाल जमानत पर बाहर हैं। घटना स्थल से बरामद मांस के नमूने को मथुरा फोरेंसिक लैब भेजा गया था, जिसकी रिपोर्ट 30 मार्च 2017 को जारी हुई और इसमें मांस को गौवंशीय बताया गया। रिपोर्ट के सामने आने के बाद कई दिनों तक गांव में तनाव बना रहा और स्थिति सामान्य करने के लिए पंचायतें होती रहीं। अदालत में दाखिल पत्र के अनुसार, गवाहों के बयानों में आरोपियों की संख्या को लेकर कई विसंगतियां थीं। वादी और आरोपी दोनों एक ही गांव के निवासी हैं, बावजूद इसके गवाहों ने अलग-अलग संख्या में नाम जोड़े। पुलिस ने जांच के दौरान आरोपियों के पास से पांच लाठियां, सरिया और ईंटें बरामद होने की बात कही, जबकि घटना स्थल से कोई आग्नेयास्त्र या धारदार हथियार नहीं मिला और न ही दुश्मनी या पूर्व रंजिश का कोई संकेत मिला।
सरकार की ओर से दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 321 के तहत दाखिल इस अर्जी में कहा गया है कि सामाजिक सौहार्द बनाए रखने और समुदायों के बीच मेलजोल को मजबूत करने के लिए मुकदमा वापस लेने की अनुमति दी जाए। उत्तर प्रदेश सरकार के न्याय अनुभाग-5 ने 26 अगस्त 2025 को मुकदमा वापस लेने का निर्णय लिया था, जिसे राज्यपाल की मंजूरी भी प्राप्त हो चुकी है। इसके बाद संयुक्त निदेशक अभियोजन ने जिला शासकीय अधिवक्ता को इस आदेश के अनुपालन के निर्देश दिए। मामले में एफआईआर दर्ज करते समय 10 नामजद और 5 अज्ञात आरोपी थे, जबकि जांच के बाद 15 लोगों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की गई। कुछ नाबालिग आरोपियों के मामले किशोर न्यायालय में विचाराधीन हैं। सभी आरोपी फिलहाल जमानत पर हैं और ट्रायल जारी है। यह सवाल बना हुआ है कि जब हत्या हुई है, गवाह मौजूद हैं और आरोप पत्र दाखिल हो चुका है, तो ऐसे में सामाजिक सौहार्द के नाम पर केस वापसी कितना उचित है—क्या मॉब लिंचिंग जैसे गंभीर मामले में यह कदम न्यायसंगत माना जा सकता है?
सरकार ने अदालत से अनुमति मांगी है, लेकिन मुकदमा वापस लेना है या नहीं, इसका अंतिम निर्णय न्यायालय ही करेगा। यह भी तर्क दिया जा रहा है कि हत्या और मॉब लिंचिंग के मामलों में प्रायः केस वापसी संभव नहीं होती। घटना में अखलाक की मौत और दानिश की गंभीर चोटें तथ्यात्मक रूप से दर्ज हैं। गवाहों के बयान भी अदालत में प्रस्तुत किए जा चुके हैं। सवाल यह भी उठ रहा है कि जिस मांस के आधार पर पूरा विवाद खड़ा हुआ, वह प्रारंभिक जांच में मटन जैसा पाया गया था, जबकि फोरेंसिक रिपोर्ट में वही मांस बीफ़ बताया गया—यह विरोधाभास जांच और प्रक्रिया पर गंभीर प्रश्न खड़े करता है।