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केंद्र सरकार के सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय के सचिव को पत्र लिखा

अपने देश में सड़क दुर्घटनाओं का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। इसी सिलसिले के बीच पिछले दिनों लखनऊ के परिवहन आयुक्त ने केंद्र सरकार के सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय के सचिव को पत्र लिखा कि कामर्शियल वाहनों को कहीं से भी फिटनेस प्रमाणपत्र लेने की जो सुविधा प्रदान की गई है, उससे अराजकता फैल रही है। उन्होंने इंगित किया कि यदि एक वाहन पुलिस के कब्जे में हो तो उसका सर्टिफिकेट कहीं और से भी मिल गया। उन्होंने गोरखपुर, कानपुर समेत सड़क दुर्घटनाओं से जुड़े ऐसे मामलों का जिक्र किया। उनका सुझाव था कि फिटनेस सर्टिफिकेट देने की पुरानी व्यवस्था फिर से लागू करना ठीक होगा।

ये सर्टिफिकेट क्षेत्रीय आरटीओ प्रदान करते थे। यह अपने देश में चलन बन गया है कि यदि सरकार नागरिकों को कोई सुविधा प्रदान करती है तो अनेक लोग उसका दुरुपयोग शुरू कर देते हैं। इसके चलते सरकारों को नागरिकों की सहूलियत के लिए प्रदान की गई सुविधाओं अथवा सेवाओं में फेरबदल करने को मजबूर होना पड़ता है। आखिर लोगों को अपनी कामर्शियल गाड़ियों की फिटनेस सही तरीके से कराने में क्या समस्या है? यदि उनके वाहन फिट नहीं होंगे तो दुर्घटना का खतरा रहेगा और सर्विस एवं मरम्मत खर्च भी बढ़ेगा। जिस भी गाड़ी की समय पर सर्विस होती है, उसमें ईंधन की भी खपत कम होती है। इसके बावजूद लोग लापरवाही बरतते हैं।

चूंकि पहले वाहनों की फिटनेस जांच में घपले होने और पैसे देकर फर्जी सर्टिफिकेट देने के मामले सामने आते रहते थे और वाहन मालिकों को आरटीओ से फिटनेस सर्टिफिकेट मिलने में कठिनाई भी होती थी, इसलिए सरकार ने एक सुविधा प्रदान की, लेकिन बात बनी नहीं। बात इसलिए नहीं बनी, क्योंकि सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार कम होने का नाम नहीं ले रहा है।

बात केवल इसकी ही नहीं है कि भ्रष्टाचार के चलते कामर्शियल वाहनों की फिटनेस के मामले में उपयोगी नियम-कानून पर सवाल उठ रहे हैं। कुछ ऐसी ही स्थिति अन्य मामलों में भी है और इसका एक कारण औसत सरकारी कर्मचारियों की अकर्मण्यता और भ्रष्टाचार है। यह किसी से छिपा नहीं कि आधारभूत ढांचे के निर्माण और रखरखाव से लेकर अन्य क्षेत्रों में गैरजिम्मेदार सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों की लापरवाही तथा भ्रष्टाचार के मामले सामने आते ही रहते हैं। किसी की सरकार हो, ऐसे मामले थमने का नाम नहीं लेते। इसका एक कारण तो यह है कि आजादी के बाद से ही नौकरशाही की जवाबदेही तय नहीं हो पा रही है।

By Ankshree

Ankit Srivastav (Editor in Chief )

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