Report By : ICN Network
नोएडा और ग्रेटर नोएडा में हजारों फ्लैट खरीदारों को ठगने का मामला अब सीबीआई जांच की जद में है। सुप्रीम कोर्ट ने बिल्डरों और बैंकों की मिलीभगत की जांच के आदेश दिए हैं। आशंका है कि जांच का दायरा बढ़ते ही वे मामले भी सामने आएंगे जिनमें नियमों को ताक पर रखकर बिल्डरों को फायदे पहुंचाए गए।
2007 से 2012 के बीच दोनों शहरों की विकास प्राधिकरणों ने कई नियमों में बदलाव कर बिल्डरों को फायदा पहुंचाया। ग्रेटर नोएडा वेस्ट में औद्योगिक जमीन को आवासीय इस्तेमाल के लिए बदल दिया गया—वो भी एनसीआर प्लानिंग बोर्ड की मंजूरी के बिना। तत्कालीन राज्य सरकार ने भी इस बदलाव को मंजूरी दे दी।
ग्रुप हाउसिंग के लिए जमीन आवंटन की शर्तें भी बेहद ढीली कर दी गईं। पहले जहां 30% राशि अग्रिम लेनी होती थी, उसे घटाकर मात्र 10% कर दिया गया। नतीजतन, जमीनों की जमकर बंदरबांट हुई।
सिर्फ ग्रेटर नोएडा वेस्ट में ही पांच सालों में 203 बिल्डरों को 2600 एकड़ जमीन दी गई। बाकी इलाकों में और 600 एकड़ जमीन बिल्डरों को बेची गई। नोएडा में भी दो हजार एकड़ से ज़्यादा जमीन बिल्डरों को दी गई।
आम्रपाली, यूनिटेक, जेपी, अंसल, अर्थ इंफ्रास्ट्रक्चर, पार्श्वनाथ जैसे बड़े नामों की परियोजनाएं आज भी अधूरी हैं। बसपा सरकार ने बिल्डरों की निर्माण लेट फीस और रजिस्ट्री पेनाल्टी तक माफ कर दी। बिल्डरों ने फ्लैट खरीदारों को सुपर एरिया और ईएमआई ब्याज जैसे बहानों से ठगने में कोई कसर नहीं छोड़ी। बुकिंग के समय सिर्फ कवर्ड एरिया और बालकनी का पैसा लिया गया, लेकिन बाद में सीढ़ियों और अन्य हिस्सों के नाम पर और पैसे वसूले गए।
गैर-पेशेवर ठेकेदारों को भी ग्रुप हाउसिंग के प्लॉट बांटे गए, जिन्होंने बिना मंजूर मानचित्र के ही प्रोजेक्ट लॉन्च कर दिए। फ्लैट बुकिंग के नाम पर निवेशकों से ठगी होती रही और सरकारी एजेंसियां चुप रहीं।
2015-16 में तत्कालीन नोएडा और ग्रेटर नोएडा के सीईओ दीपक अग्रवाल ने निर्माणाधीन प्रोजेक्ट्स के लिए एस्क्रो अकाउंट की व्यवस्था लागू की थी ताकि खरीदारों से लिया गया पैसा निर्माण में ही खर्च हो। लेकिन उनके तबादले के बाद यह व्यवस्था भी ठंडे बस्ते में चली गई।