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Sonia Gandhi News: “आदिवासी सपनों पर कुठाराघात, मोदी सरकार का निकोबार प्रोजेक्ट क्यों बन रहा है सोनिया गांधी के गुस्से का सबब?”

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Sonia Gandhi News: क्या आपने कभी सोचा है कि एक मेगा-प्रोजेक्ट कैसे न केवल जंगलों को चीर सकता है, बल्कि सदियों पुराने सपनों को भी कुचल सकता है? कांग्रेस की वरिष्ठ नेता सोनिया गांधी ने ठीक यही सवाल उठाया है, ग्रेट निकोबार द्वीप पर प्रस्तावित इस विशाल इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट को ‘गंभीर खतरा’ और ‘चिंताजनक साजिश’ करार देते हुए। उनका गुस्सा मोदी सरकार के उस फैसले पर है, जो आदिवासी भाइयों-बहनों के अधिकारों को तार-तार कर रहा है, कानूनी दीवारों को धता बता रहा है और पर्यावरण की सांसों को दम तोड़ने पर तुला हुआ है। ‘द हिंदू’ अखबार में छपे अपने तीखे लेख में सोनिया जी ने इस प्रोजेक्ट की पोल खोल दी है – आइए, उनकी आवाज को और गहराई से सुनें।

“पुरखों की धरती पर लौटने का स्वप्न, अब राख का ढेर!”

सोनिया गांधी की कलम से निकली ये पंक्तियां दिल दहला देती हैं: ग्रेट निकोबार के हरे-भरे द्वीप पर दो प्राचीन आदिवासी समुदाय बसते हैं – निकोबारी और शोम्पेन। निकोबारी भाई-बहनों के गांव तो इस प्रोजेक्ट की भूखी मशीनरी के सीधे निशाने पर हैं। याद कीजिए 2004 का वो भयानक भारतीय महासागर सूनामी, जब ये लोग अपनी प्यारी मिट्टी को छोड़ने पर विवश हो गए थे। आज, सालों की तड़प के बाद जब वे अपनी जड़ों की ओर लौटने का सपना संजो रहे हैं, ये प्रोजेक्ट आकर सब कुछ उजाड़ डालने को तैयार है! निकोबारी समुदाय के लिए ये केवल जमीन का नुकसान नहीं, बल्कि वंशानुगत आंसुओं की नदी है।

और शोम्पेन? उनका संकट तो पहाड़ जैसा ऊंचा है! केंद्र सरकार के जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने उनके लिए विशेष सुरक्षा कवच बुन रखा है – बड़े विकास कार्यों में उनकी भलाई को सर्वोपरि रखने का आदेश। लेकिन क्या हुआ? इस प्रोजेक्ट के नाम पर उनके आरक्षित वनों को चीर-फाड़ कर हटाया जा रहा है! उनका पारंपरिक जीवन, जो प्रकृति के साथ गूंजा हुआ है, अब कगार पर लटक रहा है। सोनिया जी चेताते हुए कहती हैं, “ये समुदायों का अस्तित्व ही दांव पर है – हमारी अंतरात्मा चुप्पी साध ले तो क्या बचेगा?”

“कानून की किताबें जल रही हैं, संस्थाएं ठुकराई जा रही हैं!”

सोनिया गांधी का आरोप सीधा और सटीक है: संविधान और कानूनों ने आदिवासी अधिकारों की रक्षा के लिए मजबूत किले खड़े किए हैं, लेकिन मोदी सरकार ने उन्हें धूल चटा दी। राष्ट्रीय आयोग को सलाह लेना तो दूर, आदिवासी परिषद के अध्यक्ष की पुकार तक अनसुनी कर दी गई। ये केवल प्रक्रिया का उल्लंघन नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा पर प्रहार है! सोनिया जी का लेख चीख-चीखकर बताता है कि ये प्रोजेक्ट ‘बातचीत की मर्यादाओं का मजाक’ उड़ा रहा है, जहां आदिवासियों की आवाज को कुचल दिया जा रहा है।

“जंगलों का खून बह रहा है, पर्यावरण की चीखें गूंज रही हैं!”

प्रोजेक्ट की पर्यावरणीय तबाही का आंकड़ा देखिए तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। अनुमान है कि द्वीप के 15% घने जंगल काटे जाएंगे, जिसमें 8.5 लाख से ज्यादा पेड़ों का बलिदान होगा। कुछ स्वतंत्र रिपोर्ट्स तो 32 लाख से 58 लाख तक की भयावह संख्या बता रही हैं! सरकार का ‘कंपेनसेटरी अफॉरेस्टेशन’ नामक जुमला तो बस एक दिखावा है – वो अनोखी जैव-विविधता वाली जंगलों की भरपाई कैसे करेगा, जो सदियों से यहां की सांसें हैं?

और वो पोर्ट? संवेदनशील तटीय क्षेत्र (CRZ 1A) में बसाया जा रहा है, जहां कछुओं के घोंसले चहकते हैं और प्रवाल भित्तियां रंगीन सपनों की तरह चमकती हैं। ऊपर से ये इलाका भूकंप और सूनामी का खतरनाक खेल का मैदान है – एक प्राकृतिक आपदा, और सब कुछ विनाश के ढेर! सोनिया जी साफ कहती हैं, “ये केवल पेड़ों का कत्ल नहीं, बल्कि पारिस्थितिकी तंत्र का गला घोंटना है।”

“आवाज उठाओ, अन्याय के खिलाफ जंग लड़ो!”

अंत में, सोनिया गांधी की ये पुकार हर संवेदनशील दिल को झकझोर देती है: जब शोम्पेन और निकोबारी जैसे समुदायों का वजूद ही संकट में डूब रहा है, तो हमारी सामूहिक अंतरात्मा कैसे सो सकती है? ये हमारा फर्ज है – भविष्य की पीढ़ियों के लिए, इस अनमोल प्रकृति के लिए, और राष्ट्रीय मूल्यों की रक्षा के लिए। अन्याय की इस आग के खिलाफ आवाज बुलंद करो, वरना इतिहास हमें माफ नहीं करेगा!

By admin

Journalist & Entertainer Ankit Srivastav ( Ankshree)

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